ईश्वर कौन है: ईश्वर के बारे में संक्षिप्त परिचय | Ishwar koun hai ?

ईश्वर कौन है: ईश्वर के बारे में संक्षिप्त परिचय | Ishwar koun hai ?, Ishwar Allah ke baare me Sanshipt parichay hindi me
ईश्वर कौन है: ईश्वर के बारे में संक्षिप्त परिचय | Ishwar koun hai ?

ईश्वर के बारे में संक्षिप्त परिचय

ईश्वर अति दयावान, अत्यंत कृपाशील के नाम से।

आज लोग ईश्वर का नाम अवश्य लेते हैं, उसकी पूजा
भी करते हैं, परन्तु बड़े खेद की बात है कि
उसे बहुत कम लोग पहचानते हैं।

तो आईये इस लेख में हम जानने की कोशिश करते है
के ईश्वर की परिभाषा क्या है और उसने स्वयं अपना परिचय किस प्रकार दिया है।

ईश्वर कौन है?

ईश्वर समस्त सृष्टि का अकेला निर्माता, पालनहार
और शासक है। उसी ने पृथ्वी, आकाश, चंद्रमा, सूर्य,
सितारे और पृथ्वी पर रहने वाले
सारे इन्सानों एवं प्रत्येक जीव-जंतुओं को पैदा किया।

ईश्वर को ना खाने-पीने और सोने की आवश्यकता
पड़ती है, न उसके पास वंश है और न ही उसका कोई साझी।

वही ईश्वर स्वयं अपना परिचय करवाते हुए पवित्र कुरआन में उल्लेख करता है:

❝ (हे ईश दूत!) कह दोः अल्लाह अकेला है, अल्लाह निरपेक्ष (और सर्वाधार) है,
न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान है। और न उसके बराबर कोई है।

[कुरआन 112]

इस अध्याय में ईश्वर के पांच मूल गुण बताए गए हैं:
(1) ईश्वर केवल एक है,
(2) उसको किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती,
(3) उसकी कोई संतान नहीं,
(4) उसके माता-पिता नहीं एवं
(5) उसका कोई साझीदार नहीं।

अथर्ववेद (13-4-20) में है:

“तमिदं निगतं सहास एष एक एकवृदेक एव”

अर्थात: किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है। उससे भिन्न दूसरा कोई भी नहीं। …
वह अपने काम में किसी की सहायता नहीं लेता, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है।
[स्वामी दयानन्द सरस्वती, दयानन्द ग्रंथमाला, पृ.-338]


और सनातन वैदिक धर्म का ब्रह्मसूत्र भी यह है:

एकम् ब्रम द्वितीय नास्तेः नहे ना नास्ते किंचन।

अर्थात: ईश्वर एक ही है दूसरा नहीं है, नहीं है, तनिक भी नहीं है।


क्या ईश्वर अवतार लेता है?

बड़े दुख की बात है कि जिस ईश्वर की कल्पना
हमारे हृदय में स्थित है, अवतार की आस्था ने
उसकी महिमा को खंडित कर दिया।

आप स्वयं सोचें कि जब ईश्वर का कोई साझीदार नहीं
और न उसे किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती है,
तो उसे मानव रूप धारण करने की क्या आवश्यकता पड़ी?

श्रीमद्भागवतगीता (7/24) में कहा गया है:

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।

अर्थात: बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए
मन-इन्द्रियों से परे मुझ परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।

[गीता-तत्व विवेचनी टीका, पृष्ठ-860]

और यजुर्वेद 32/3 में इस प्रकार वर्णन किया गया है:

न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महदयश।

‘जिस प्रभु का बड़ा प्रसिद्ध यश है उसकी कोई प्रतिमा नहीं।

धार्मिक पक्षपात से अलग होकर आप स्वयं सोचें कि
क्या ऐसे महान ईश्वर के संबंध में यह कल्पना की जा
सकती है कि वह जब इन्सानों के मार्ग-दर्शन का
संकल्प करे, तो स्वयं ही अपने बनाए हुए किसी इन्सान का वीर्य बन जाए,

अपने ही बनाए हुए किसी महिला के गर्भाशय की
अंधेरी कोठरी में प्रवेश होकर 9 महीने तक वहां कैद रहे
और उत्पत्ति के विभिन्न चरणों से गुज़रता रहे,

खून और गोश्त में मिलकर पलता-बढ़ता रहे
फिर जन्म ले और बाल्यावस्था से किशोरवस्था को पहुंचे।

सच बताइए क्या इससे उसके ईश्वरत्व में दाग न लगेगा?

ईश्वर मनुष्य नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर एवं मनुष्य के
गुण भिन्न-भिन्न हैं। यद्यपि ईश्वर को हम सर्वशक्तिमान
मानकर चलते हैं, परन्तु इसका अर्थ
यह तो नहीं कि ईश्वर ईश्वरत्व से बदलकर
मनुष्यत्व में परिणीत हो जाए।


ईश्वर ने मानव का मार्गदर्शन कैसे किया।

प्रश्न यह उठता है कि: जब ईश्वर अवतार नहीं लेता
तो उसने मानव का मार्ग-दर्शन कैसे किया?

इसका उत्तर जानने के लिए यदि आप अवतार का
सही अर्थ समझ लें तो आपको स्वयं पता चल जाएगा
कि ईश्वर ने मानव का मार्गदर्शन कैसे किया।

अवतार का अर्थ

श्री राम शर्मा जी कल्किपुराण के पृष्ठ 278 पर अवतार की परिभाषा करते हैं:

“समाज की गिरी हुई दशा में उन्नति की ओर ले जाने वाला महामानव नेता।”

अर्थात् मानव में से महान नेता जिनको ईश्वर मानव मार्ग-दर्शन के लिए चुनता है।


डॉ. एम. ए. श्रीवास्तव लिखते हैं:

“अवतार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि ईश्वर स्वयं धरती पर सशरीर आता है,
बल्कि सच्चाई यह है कि वह अपने पैगम्बर और अवतार भेजता है।”

(हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और भारतीय धर्मग्रंथ, पृष्ठ 5)
सल्ल : हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर अल्लाह की रहमत व सलामती हो।

ज्ञात यह हुआ कि ईश्वर की ओर से ईश-ज्ञान लाने वाला मनुष्य ही होता है,
जिसे संस्कृत में अवतार, अंग्रेज़ी में प्राफेट और अरबी में रसूल (ईश-दूत) कहते हैं।

ईश्वर ने मानव-मार्ग-दर्शन के लिए हर देश और हर युग में
अनुमानतः 1,24,000 ईशदूतों को भेजा। कुरआन उन्हें रसूल या नबी कहता है।
वे मनुष्य ही होते थे, उनमें ईश्वरीय गुण कदापि नहीं होता था,
उनके पास ईश्वर का संदेश आकाशीय दूतों के माध्यम से
आता था तथा उनको प्रमाण के रूप में चमत्कार भी दिये जाते थे।

लेकिन जब इन्सानों ने उनमें असाधारण गुण देखकर उन पर श्रद्धा भरी नज़र डाली,
तो किसी समूह ने उन्हें भगवान बना लिया, किसी ने अवतार का सिद्धांत बना लिया,
जबकि किसी ने उन्हें ईश्वर का पुत्र समझ लिया,
हालांकि उन्होंने उसी के खंडन और विरोध में अपना पूरा जीवन बिताया था।

इस प्रकार हर युग में संदेष्टा आते रहे और लोग अपने स्वार्थ के लिए उनकी शिक्षाओं में परिवर्तन करते रहे।

यहां तक कि जब सातवीं शताब्दी ईसवी में सामाजिक, भौतिक और सांस्कृतिक उन्नति ने
सारी दुनिया को एक इकाई बना दिया,
तो ईश्वर ने हर देश में अलग-अलग संदेष्टा भेजने के क्रम को बन्द करते हुए
अरब में महामान्य हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को भेजा।

और उन पर ईश्वरीय संविधान के रूप में
कुरआन का अवतरण किया,
यह ग्रंथ चौदह सौ वर्ष पूर्व अवतरित हुआ था,
लेकिन आज तक पूर्ण रूप में सुरक्षित है।

एक ईसाई विद्वान सर विलियम म्यूर कहते हैं:

“संसार में कुरआन के अतिरिक्त कोई ऐसा ग्रंथ नहीं पाया जाता,
जिसका अक्षर एवं शैली बारह शताब्दी गुजरने के बावजूद पूर्ण रूप में सुरक्षित हो।”

(लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद)


इस्लाम कब से हैं?

आज अधिकांश लोगों में यह भ्रम प्रचलित है कि इस्लाम के संस्थापक हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) हैं।

यद्यपि सत्य यह है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) कोई नया धर्म लेकर नहीं,
बल्कि उसी धर्म के अन्तिम संदेष्टा थे, जो धर्म ईश्वर ने समस्त मानवजाति के लिए चुना था।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) इस्लाम के संस्थापक नहीं, बल्कि उसके अंतिम संदेष्टा हैं।
यही वह धर्म है जिसकी शिक्षा मनुष्य को दी गई थी।

सबसे पहले मानव आदम हैं जिनकी रचना ईश्वर ने बिना माता-पिता के की थी
और उनके बाद उनकी पत्नी हव्वा को उत्पन्न किया था।

इन्हीं दोनों पति-पत्नी से मनुष्य की उत्पत्ति का आरंभ हुआ,
जिनको कुछ लोग मनु और सतरोपा कहते हैं, तो कुछ लोग ऐडम और ईव

जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख पवित्र कुरआन (2/30-38) तथा
भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व (खंड 1 अध्याय 4) और
बाइबल (उत्पत्ति 2/6-25) और दूसरे अनेक ग्रंथों में किया गया है।

 ईश्वर ने हर युग में प्रत्येक समुदाय को उनकी अपनी ही भाषा में शिक्षा प्रदान किया। 

[सूरः इब्राहीम 14:4]

उसी शिक्षा के अनुसार जीवन-यापन का नाम इस्लाम था,
जिसका नाम प्रत्येक संदेष्टा अपनी-अपनी भाषा में रखते थे
जैसे संस्कृत में नाम था ‘सर्व समर्पण धर्म
जिसका अरबी भाषा में अर्थ होता है “इस्लाम धर्म”

ज्ञात यह हुआ कि मानव का धर्म आरंभ से एक ही रहा है,
परन्तु लोगों ने अपने-अपने गुरुओं के नाम से अलग-अलग धर्म बना लिया
और विभिन्न धर्मों में विभाजित हो गए।

आज हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि
हम अपने वास्तविक ईश्वर की ओर पलटें,
जिसका संबंध किसी विशेष देश, जाति या वंश से नहीं,
बल्कि वह सम्पूर्ण संसार का स्रष्टा, अन्नदाता और पालनकर्ता है।

ईश्वर ही ने हम सबको पैदा किया,
वही हमारा पालन-पोषण कर रहा है,
तो स्वाभाविक तौर पर हमें केवल उसी की पूजा करनी चाहिए,
इसी तथ्य का समर्थन प्रत्येक धार्मिक ग्रंथों ने भी किया है।

इस्लाम भी यही आदेश देता है कि मात्र एक ईश्वर की पूजा की जाए,
इस्लाम की दृष्टि में स्वयं मुहम्मद (सल्ल.) की पूजा करना अथवा
आध्यात्मिक चिंतन के बहाने किसी चित्र का सहारा लेना महापाप है।

सुनो अपने ईश्वर की:

❝ लोगो! एक मिसाल दी जाती है, ध्यान से सुनो!
जिन पूज्यों को तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो वे सब मिलकर
एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते।
बल्कि यदि मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए
तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते।
मदद चाहने वाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वह भी कमजोर,
इन लोगों ने अल्लाह की कद्र ही नहीं पहचानी जैसा कि
उसके पहचानने का हक है।
 ❞

[कुरआन, 22:73-74]

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