एक लाजवाब कहानी ~ अपनों में छिपे गैरों को पेहचाने ...

एक लाजवाब कहानी ~ अपनों में छिपे गैरों को पेहचाने | पुराने जमाने में जब अरबों के यहाँ शादी होती, तो प्राचीन रिवाज के अनुसार, वे दावत में शामिल होने वा
एक लाजवाब कहानी ~ अपनों में छिपे गैरों को पेहचाने ...

एक लाजवाब कहानी
अपनों में छिपे गैरों को पेहचाने

पुराने जमाने में जब अरबों के यहाँ शादी होती, तो प्राचीन रिवाज के अनुसार, वे दावत में शामिल होने वाले मेहमानों को खिलाने के लिए रोटी के अंदर भुना हुआ गोश्त का एक टुकड़ा लपेट कर पेश करते थे। 


        यदि किसी समारोह में घर के मुखिया को पता चलता कि उस शादी में शामिल होने वाले मेहमानों की संख्या दावत के लिए तैयार किए गए रोटी में लिपटे गोश्त के टुकड़ों की संख्या से अधिक है, या अधिक हो सकती है, तो वो खाने के वक़्त दो रोटियाँ बिना गोश्त के टुकड़े के एक दूसरे के साथ लपेट कर अपने घर के सदस्यों, करीबी रिश्तेदार या बेहद करीबी दोस्तों के हाथों में दे देते थे, जबकि रोटी में लिपटा हुआ गोश्त का टुकड़ा सिर्फ़ बाहर से आए मेहमानों को पेश किया जाता था।  अब जिसके हाथ में भी बिना गोश्त के टुकड़े वाली सिर्फ़ रोटी में लिपटी हुई रोटी मिलती तो वो बिना किसी से कुछ कहे उसे ऐसे खाता की बाहर से आए मेहमानों को शक भी नहीं होता की इसे बिना गोश्त के टुकड़े वाली रोटी मिली है। 


        ऐसे ही एक बार एक गरीब आदमी के यहाँ शादी समारोह था। जिस में मेहमान अधिक आ गए। तैयार किए गए रोटी में लिपटे गोश्त के टुकड़ों की संख्या से मेहमानों की संख्या ज़्यादा हो गयी। तो उस गरीब आदमी ने एहतियात के तौर पर बग़ैर गोश्त के, रोटी के अंदर रोटी लपेट कर अपने घर के सदस्यों, करीबी रिश्तेदार और कुछ बेहद करीबी भरोसेमंद दोस्तों के हाथों में दे दिया। ताकि बाहर से आए मेहमानों को गोश्त के टुकड़ों वाली रोटी मिल सके और किसी तरह की भी शर्मिंदगी से बचा जा सके। 

        अब जिनको सिर्फ़ रोटी में लिपटी रोटी मिली थी उन्होंने उसे ऐसे खाना शुरू कर दिया जैसे कि सबको लगे कि वो गोश्त के टुकड़े वाली रोटी ही खा रहे हैं। 


        लेकिन उस गरीब आदमी के एक बेहद करीबी रिश्तेदार के हाथ में जब बिना गोश्त के टुकड़ों वाली रोटी मिली तो उसने रोटी को खोलकर परिवार के मुखिया को बुलाया और ग़ुस्से से तेज आवाज़ में बोला कि, “ऐ अब्दुल्लाह के बाप, ये क्या मज़ाक़ है? मेरी रोटी में तो गोश्त है ही नहीं। मैं आज के दिन ये तो हरगिज़ नहीं खाऊँगा। 


        उस गरीब शख़्स ने बहुत धैर्य और खामोशी से उसकी बात सुनी और मुस्कुरा कर जवाब दिया। “अजनबियों का मुझ पर हक़ है कि मेरे घर के दस्तरख़ान पर उन्हें हर हाल में गोश्त पेश किया जाए। ये लीजिए गोश्त का टुकड़ा। और मैं माफ़ी चाहता हूँ की मैं आपको अपने परिवार के सदस्यों में गिन रहा था।”


नसीहत :

हमारे मौजूदा दौर में हम बहुत सारे लोगों पर भरोसा करते हैं। इनके अपने घर के सदस्य जैसा समझते हुए ये यक़ीन रखते हैं कि मुश्किल वक़्त में हमारे साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े होंगे, हमारे पीठ पीछे हमारी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करते हुए हर हाल में वफ़ादारी निभाएँगे। लेकिन जब उनकी ज़रूरत पड़ती है तो हमारे सारे अंदाज़े ग़लत साबित हो जाते हैं। इसलिए अब आपको ये तय करना है कि आप कौन सी रोटी किस बंदे के हाथ में देंगे।

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